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Sunday 28 September 2014

विवेक हमारी वह शक्ति है जो उचित निर्णय करने में सहायक होती

विवेक हमारी वह शक्ति है जो उचित निर्णय करने में सहायक होती
मनुष्य का मानस अनंत शक्तियों का भंडार है, लेकिन सबसे बड़ी शक्ति है- विवेक। विवेक ही हमारी वह शक्ति है, जो सत्प्रेरणा देती है और उचित निर्णय करने में सहायक होती है। यह संरक्षक सत्ता प्रत्येक मनुष्य के अंत:करण में है। यदि मनुष्य विवेक के प्रकाश में चलता रहे, तो बुद्धि निर्णय करने में सफल रहती है। दुख-कष्टों की संभावना कम होकर संशय मिट जाते हैं।
महाभारत में वेदव्यास ने लिखा है कि समस्त प्राणियों में मनुष्य से श्रेष्ठ कोई भी प्राणी नहीं है, क्योंकि मनुष्य में विवेक एक ऐसी शक्ति है, जो अन्य प्राणियों में नहीं है। इसी के आधार पर मनुष्य अन्य प्राणियों को अपने वश में कर सकता है, जबकि अन्य प्राणी मनुष्य को अपने वश में नहीं कर सकते। इस आधार पर यह मान लिया गया कि मनुष्य कुछ भी करे, कुछ भी खाए और कुछ भी पिए, उसके लिए सब ठीक है। इस मान्यता का मनुष्य ने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए दुरुपयोग किया। श्रेष्ठ होने का मतलब है-मनुष्य। मानव वही खाए, जो उसके लिए परमात्मा ने अंतस चेतना के माध्यम से आदेश दिया था। मनुष्य वही पिए, जो उसके लिए नियत किया गया। वेदव्यास ने वेदों का सार बताते हुए कहा था कि हम दूसरों के साथ ऐसा व्यवहार करें, जो हमें पसंद हो।
हमें कोई आघात पहुंचाता है, तो हमें कष्ट होता है। ठीक इसी आधार पर हमें अपने विवेक से यह सोचना चाहिए कि हमारे द्वारा अन्य लोगों को पीड़ित करने से उतना ही कष्ट होता है, जितना हमें। दूसरों को कष्ट पहुंचाने की इस प्रवृत्ति ने मनुष्य को भ्रमित किया है और निरंकुश निष्ठुर बनाया है। आज विवेकशीलता के अभाव में मनुष्य शारीरिक और मानसिक दृष्टि से निरंतर अस्वस्थ होता चला जा रहा है। अपराध, नशाखोरी, मिलावट, जमाखोरी तनाव, क्रुरता पारस्परिक शोषण, उच्छृंखलता, धोखाधड़ी, आपाधापी, स्वार्थ लोलुपता आदि दिनोंदिन बढ़ रहे हैं। परिणामस्वरूप मनुष्य सच्चे सुख शांति से दूर होता जा रहा है।
मनुष्य सामाजिक प्राणी है और सर्वश्रेष्ठ भी, लेकिन मनुष्य की सामाजिकता श्रेष्ठता की सार्थकता तभी है, जब वह विवेकपूर्ण जीवन जीए, क्योंकि विवेक ही मिश्रित नीर-क्षीर रूपी जीवन की समस्या को पुन: पानी का पानी और दूध का दूध कर सकने की सामर्थ्य रखता है।


कल्पना और संकल्पना


प्राय: जीवन में कुछ विशेष कार्य करने से पहले व्यक्ति तरह-तरह के संकल्प करता है। संकल्प सकारात्मक और कल्याणकारी कार्यो को करने से पूर्व की इच्छाशक्ति पर केंद्रित होने की प्रक्रिया है।
नकारात्मक मानव-विरोधी काम करने से पहले किए जाने वाले समस्त मानसिक और भाविक यत्‍‌ संकल्प नहीं हो सकते। संकल्पना सद्भावनाओं से जन्म लेती है। सद्विचारों के क्रियान्वयन के लिए जो कार्यनीति बनती है उसकी प्रेरणा संकल्प से ही मिलती है।
धार्मिक अनुष्ठान सिद्ध करने के लिए भी तन-मन से आत्मिक स्तर पर शुद्ध होना परमावश्यक है और अनुष्ठान की समाप्ति तक शरीर और हृदय से सात्विक स्थिति में स्थिर होना जातक के संकल्प की परीक्षा होती है।
जीवन में बड़ा अच्छा काम करने के लिए व्यक्ति को उस काम के प्रति एक अतिरिक्त ऊर्जा की जरूरत होती है। सद्गुणात्मक मनुष्य-प्रकृति अतिरिक्त ऊर्जा का सबसे बड़ा स्नोत है और इसे संकल्प द्वारा बढ़ाया जा सकता है।
अनेक मानवीय सद्गुणों को अपने व्यक्तित्व में समाहित कर उन्हें अनुरक्षित करने के लिए मनुष्य को कठिन शारीरिक-मानसिक प्रयत्‍‌ करने पड़ते हैं। प्रयत्‍‌नों के निरंतर अभ्यास के लिए कठोर संकल्प चाहिए। कोई भी व्यक्ति केवल भौतिक सामग्रियों की सहायता से अच्छे काम में सफल नहीं हो सकता। उसमें भौतिक सामग्रियों के संतुलित प्रयोग की समझ भी होनी चाहिए। इसके लिए उसे एक दूरद्रष्टा, परोपकारी आशावादी व्यक्ति बनना होगा और ये सभी गुण उसी व्यक्ति में हो सकते हैं, जो सद्भावनाओं को बेहतर संकल्प-शक्ति से सद्कायरें में परिवर्तित कर सके। संकल्पना व्यक्ति की जन्मजात प्रवृत्ति है। शिशु मानव में यह प्रवृत्ति अधिक होती है। जैसे-जैसे व्यक्ति बड़ा होता है, उसकी जीवन संबंधी कल्पनाएं दो भागों में बंट जाती हैं। ये हैं कल्पना और संकल्पना। कल्पनाओं में विकार विसंगतियां हो सकती हैं, परन्तु संकल्पनाएं सदाचार, सत्यनिष्ठा, सद्प्रवृत्ति, सद्चि्छा से परिपूर्ण होती हैं। संसार में बीज से वृक्ष बनने की प्रक्त्रिया एक प्रकार से संकल्प का ही द्योतक है। संकल्प की शक्ति से ही ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न आयाम प्राप्त हो सके हैं। आज मनुष्य जीवन के सम्मुख सबसे बड़ी चुनौती अपने नैसर्गिक-प्राकृतिक गुणों की सुरक्षा की है। इसके लिए सामूहिक प्रयासों को व्यावहारिक बनाना होगा।